शतरंज के बिसात पर बादशाहत कायम करने वाली कोनेरू हम्पी का नाम आज किसी परिचय का मोहताज नहीं। वह सिर्फ़ एक खिलाड़ी नहीं, बल्कि मातृत्व और पेशेवर उत्कृष्टता के बीच संतुलन साधने वाली एक मिसाल हैं। हाल ही में दिसंबर 2024 में, उन्होंने दूसरी बार महिला विश्व रैपिड शतरंज चैंपियनशिप का खिताब जीतकर दुनिया को दिखा दिया कि दृढ़ संकल्प और अदम्य इच्छाशक्ति के आगे कोई भी चुनौती टिक नहीं सकती।
शतरंज की बिसात पर एक बाल-प्रतिभा का उदय
कोनेरू हम्पी का सफर बचपन से ही असाधारण रहा है। महज़ 15 साल की उम्र में ग्रैंडमास्टर का ख़िताब हासिल करके उन्होंने तत्कालीन सबसे कम उम्र की महिला ग्रैंडमास्टर का रिकॉर्ड अपने नाम किया। उनकी प्रतिभा, एकाग्रता और खेल के प्रति समर्पण उन्हें लगातार नई ऊंचाइयों पर ले जाता रहा। लेकिन, जीवन में कई बार ऐसे मोड़ आते हैं, जब सबसे मज़बूत इरादों वाले व्यक्ति को भी अपनी प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करना पड़ता है। हम्पी के लिए वह मोड़ मातृत्व था।
मातृत्व और चैंपियन का संघर्ष
बेटी अहाना के जन्म के बाद, हम्पी ने अपने करियर से एक छोटा सा ब्रेक लिया। कई बार यह सोचा गया कि क्या हम्पी अब पहले जैसी वापसी कर पाएँगी? क्या मातृत्व की ज़िम्मेदारियाँ उनके खेल को प्रभावित करेंगी? लेकिन हम्पी तो हम्पी हैं! 2019 में बेटी के जन्म के महज़ दो साल बाद, उन्होंने विश्व रैपिड चैंपियनशिप का ख़िताब जीतकर सबको चौंका दिया। यह वापसी सिर्फ़ एक जीत नहीं थी, यह मातृत्व और पेशेवर जीवन के बीच संतुलन साधने की उनकी अद्भुत क्षमता का प्रमाण था। और फिर, दिसंबर 2024 में, उन्होंने यह कारनामा दोहराया, दूसरी बार विश्व चैंपियन बनकर।
अदृश्य चोटी: महिला खिलाड़ियों की अनूठी चुनौती
हम्पी की कहानी केवल शतरंज के मोहरों तक ही सीमित नहीं है, यह महिला खिलाड़ियों के सामने आने वाली एक अदृश्य चोटी पर चढ़ने जैसा है। अक्सर पुरुष खिलाड़ियों को उनके खेल के प्रदर्शन के लिए सराहा जाता है, लेकिन महिला खिलाड़ियों को मातृत्व, परिवार और करियर के बीच संतुलन बनाने की अतिरिक्त चुनौती का सामना करना पड़ता है। हम्पी बताती हैं, “कई बार इवेंट के दौरान बेटी की याद आती है, लेकिन फ़ोकस बनाए रखना ज़रूरी है। भावुक होने से बचने के लिए, कभी-कभी मैं उससे बात भी नहीं करती।”
क्या कभी किसी ने भारत के महान शतरंज खिलाड़ी विश्वनाथन आनंद से यह पूछा है कि जब वह किसी अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामेंट में होते हैं, तो उनके बच्चे का ख़याल कौन रखता है? शायद नहीं। यही वह सूक्ष्म लेकिन महत्वपूर्ण अंतर है जो महिला एथलीटों की उपलब्धियों को और भी प्रेरणादायक बनाता है। उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से न केवल खेल की माँगों को पूरा करना होता है, बल्कि `माँ-गिल्ट` (mom-guilt) जैसी भावनाओं और समाज की अपेक्षाओं से भी जूझना पड़ता है। हम्पी ने अपनी बेटी के जन्मदिन पर न पहुँच पाने की कहानी साझा करते हुए बताया कि कैसे उनकी बेटी को वह बात आज तक याद है, और अब वह हर जन्मदिन पर घर पर रहने का पूरा प्रयास करती हैं।
दृढ़ संकल्प और पारिवारिक सहयोग की शक्ति
हम्पी की सफलता में उनके दृढ़ संकल्प के साथ-साथ उनके परिवार का भी अहम योगदान रहा है। उनके माता-पिता ने उन्हें बचपन से ही मज़बूत बनाया। मासिक धर्म जैसी सामान्य शारीरिक प्रक्रियाओं को भी उन्होंने कभी कमज़ोरी नहीं समझा, बल्कि एक सामान्य दिन की तरह ही सामना किया। हम्पी कहती हैं, “परिवार का सहयोग महिलाओं के लिए बेहद ज़रूरी है। इसके बिना कुछ भी हासिल करना असंभव है।” उनके पति और माता-पिता ने बेटी अहाना की देखभाल में अहम भूमिका निभाई, जिससे हम्पी को अपने खेल पर ध्यान केंद्रित करने का अवसर मिला। उनके पिता आज भी उनके साथ एक पेशेवर की तरह अभ्यास करते हैं, भले ही हम्पी कभी-कभी आराम करती हों।
30 की उम्र के बाद खेल में आने वाली चुनौतियों पर हम्पी खुलकर बात करती हैं। “युवावस्था में आप कुछ स्थितियों पर बहुत तेज़ी से प्रतिक्रिया देते हैं, रणनीति बनाते हैं। लेकिन 30 के बाद, सटीक गणना करने में थोड़ी आलस्य आ जाती है।” इस चुनौती को भी उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत और स्वास्थ्य को प्राथमिकता देकर पार किया।
एक प्रेरणा, एक विरासत
कोनेरू हम्पी सिर्फ़ एक शतरंज खिलाड़ी नहीं, बल्कि भारत की उन लाखों महिलाओं के लिए एक जीती-जागती प्रेरणा हैं, जो अपने सपनों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रही हैं, जो करियर और परिवार के बीच संतुलन साधने की कोशिश कर रही हैं। उनका यह सफर हमें सिखाता है कि बाधाएँ कितनी भी बड़ी क्यों न हों, यदि इरादे मज़बूत हों, तो हर मुश्किल को पार किया जा सकता है।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2025 पर, हमें कोनेरू हम्पी जैसी चैंपियनों के समर्पण, बलिदान और हर मोर्चे पर अपनी रानी जैसी भूमिका को सलाम करना चाहिए। वह केवल शतरंज के बिसात पर ही नहीं, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में एक सच्ची रानी हैं।